Bhagwat Geeta quotes

भगवत गीता कोट्स (परमगुह्ज्ञान)

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श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं!  जो लोग भक्ति में श्रद्धा नहीं रखते, वे मुझे प्राप्त नहीं कर पाते। और वे इस भौतिक जगत में जन्म-मृत्यु के मार्ग में वापस आते रहते हैं।

श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं!  यह सम्पूर्ण जगत मेरे अव्यक्त रूप द्वारा व्याप्त है। समस्त जीव मुझमें हैं, किंतु मैं उनमें नहीं हूं।

मेरे द्वारा उत्पन्न सारी वस्तुएं मुझमें स्थित नहीं रहतीं। जरा, मेरे योग-ऐश्वर्य को देखो! यद्यपि मैं समस्त जीवों का पालक हूं और सर्वत्र व्याप्त हूं, लेकिन मैं इस विराट अभिव्यक्ति का अंश नहीं हूं, क्योंकि मैं सृष्टि का कारणस्वरूप हूं।

जिस प्रकार प्रवाहमान प्रबल वायु सदैव आकाश में स्थित रहती है, उसी प्रकार समस्त उत्पन्न प्राणियों को मुझमे स्थित जानो।

हे कुंतीपुत्र कल्प का अंत होने पर सारे प्राणी मेरी प्रकृति में प्रवेश करते हैं और अन्य कल्प के आरम्भ होने पर मैं उन्हे अपनी शक्ति से पुन  उत्पन्न करता हूं।

श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, सम्पूर्ण जगत मेरे अधीन है। यह मेरी इच्छा से बारम्बार सवत  प्रकट होता रहता है और मेरी ही इच्छा से अन्त में विनष्ट होता है।

सम्पूर्ण जगत मेरे अधीन है। यह मेरी इच्छा से बारम्बार स्वत  प्रकट होता रहता है और मेरी ही इच्छा से अन्त में विनष्ट होता है।

भगवान कृष्ण अर्जुन से कहते हैं- हे धनंजय ये सारे कर्म मुझे नहीं बांध पाते हैं। मैं उदासीन की भांति इन सारे भौतिक कर्मों से सदैव विरक्त रहता हूं।

हे कुंतीपुत्र यह भौतिक प्रकृति मेरी शक्तियों में से एक है और मेरी अध्यक्षता मे कार्य करती है, जिससे सारे चर तथा अचर प्राणी उत्पन्न होते हैं। इसके शासन में यह जगत बारम्बार सृजित और विनष्ट होता रहता है।

जब मैं मनुष्य रूप में अवतरित होता हूं, तो मूर्ख मेरा उपहास करते हैं। वे मुझ परमेश्वर के दिव्य स्वभाव को नहीं जानते ।

मोहमुक्त महात्माजन दैवी प्रकृति के संरक्षण में रहते हैं। वे पूर्णतया भक्ति में निमग्न रहते हैं क्योंकि वे मुझे आदि तथा अविनाशी भगवान के रूप में जानते हैं।

 ये महात्मा मेरी महिमा का नित्य कीर्तन करते हुए, दृढ़संकल्प के साथ प्रयास करते हुए, मुझे नमस्कार करते हुए, भक्तिभाव से निरंतर मेरी पूजा करते हैं।

मैं ही कर्मकाण्ड, मैं ही यज्ञ, पितरों को दिया जाने वाला तर्पण, औषधि दिव्य ध्वनि (मन्त्र), घी अग्नि तथा आहुति हूं।

मैं इस ब्रह्माण्ड का पिता, माता, आश्रय तथा पितामह हूं। मैं ज्ञेय (जानने योग्य), शुद्धिकर्ता तथा ओंकार हूं। मैं ऋगवेद, सामवेद तथा यजुर्वेद भी हूं।

भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, मैं ही लक्ष्य, पालनकर्ता, स्वामी, साक्षी, धाम, शरणस्थली, तथा अत्यंत प्रिय मित्र हूं। मैं सृष्टि तथा प्रलय, सबका आधार, आश्रय तथा अविनाशी बीज हूं।

भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, हे अर्जुन ! मैं ही ताप प्रदान करता हूं और बर्षा को रोकता तथा लाता हूं। मैं अमरत्व हूं और साक्षात मृत्यु भी हूं। आत्मा तथा पदार्थ (सत् तथा असत्) दोनो मुझ हूी में है।

भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, जो वेदों का अध्ययन करते तथा सोमरस का पान करते हैं, वे स्वर्ग प्राप्ति की गवेषणा करते हुए अप्रत्यक्ष रूप से मेरी पूजा करते हैं। वो पापकर्मों से शुद्ध होकर, इन्द्र के पवित्र सवर्गिक धाम में जन्म लेते हैं, जहां वे देवताओं का सा आनंद भोगते हैं।

भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, जो लोग अनन्यभाव से मेरे दिव्यस्वरूप का ध्यान करते हुए निरंतर मेरी पूजा करते हैं, उनकी जो आवश्यकताएं होती हैं, उन्हे मैं पूरा करता हूं, और जो कुछ उनके पास है, उसकी रक्षा करता हूं।

जो लोग अन्य देवताओं के भक्त हैं, और उनकी श्रद्धापूर्वक पूजा करते हैं, वास्तव में वे मेरी ही पूजा करते हैं, किंतु वे यह त्रुटिपूर्ण ढंग से करते हैं।

मैं ही समस्त यज्ञों का एकमात्र भोक्ता हूं। जो लोग मेरे दिव्य स्वरूप को नहीं पहचान पाते, वे नीचे गिर जाते हैं।

यदि कोई प्रेम तथा भक्ति के साथ मुझे, पत्र, पुष्प, फल या जल प्रदान करता है, तो मैं उसे स्वीकार करता हूं।

यदि कोई जघन्य से जघन्य कर्म करता हैं, किंतु यदि वह भक्ति में रत रहता है तो उसे साधु मानना चाहिए, क्योंकि वह अपने संकल्प में अडिग रहता है।

भगवान कृष्ण अर्जुन से कहते हैं,  हे पार्थ जो लोग मेरी शरण ग्रहण करते हैं, वे भले ही निम्नजन्मा स्त्री, वैश्य (व्यापारी) तथा शुद्र (श्रमिक ) क्यों न हों वे परमधाम को प्राप्त करते हैं।

भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, अपने मन को मेरे नित्य चिंतन में लगाओ, मेरे भक्त बनो, मुझे नमस्कार करो और मेरी ही पूजा करो। इस प्रकार मुझमें पूर्णतया तल्लीन होने पर तुम निश्चित रूप से मुझको प्राप्त होगे।

भक्तियोग ,भगवतगीता कोट्स

श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, जो लोग अपने मन को मेरे साकार रूप में एकाग्र करते हैं, और अत्यंत श्रद्धापूर्वक मेरी पूजा करने में सदैव लगे रहते हैं, वे मेरे द्वारा परम सिद्ध माने जाते हैं।

श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, जो लोग इन्द्रियों को वश करके तथा सबों के प्रति समभाव रखकर परम सत्य की निराकार कल्पना के अन्तर्गत उस अव्यक्त की पूरी तरह से पूजा करते हैं, जो इन्द्रियों की अनुभूति के परे है, सर्वव्यापी है, अकल्पनीय है,अपरिवर्तनीय है, अचल तथा ध्रुव है, वे समस्त लोगों के कल्याण में संलग्न रहकर मुझे प्राप्त करते हैं।

श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, जिन लोगों के मन परमेश्वर के अव्यक्त, निराकार, स्वरूप के प्रति आसक्त है, उनके लिए प्रगति कर पाना अत्यंत कष्टप्रद है। देहधारियों के लिए उस क्षेत्र में प्रगति कर पाना सदैव दुष्कर होता है।

श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, यदि तुम अपने चित्त को अविचल भाव से मुझ पर स्थिर नहीं कर सकते, तो तुम भक्तियोग के विधि-विधानों का पालन करो। इस प्रकार तुम मुझे प्राप्त करने की चाह उत्पन्न करो।

श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, मुझ भगवान में अपने चित्त को स्थिर करो और अपनी सारी बुद्धि मुझमें लगाओ। इस प्रकार तुम निसंदेह मुझमें सदैव वास करोगे।

श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, यदि तुम भक्तियोग के विधि विधानों का भी अभ्यास नहीं कर सकते , तो मेरे लिए कर्म करने का प्रयत्न करो, क्योंकि मेरे लिए कर्म करने से तुम पूर्ण अवस्था (सिद्धि) को प्राप्त होगे।

श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, यदि तुम मेरे इस भावनामृत में कर्म करने में असमर्थ हो तो तुम अपने कर्म के समस्त फलों को त्याग कर कर्म करने तथा आत्मस्थित होने का प्रयास करो।

श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, जिससे किसी को कष्ट नहीं पहुंचता, तथा जो अन्य किसी के द्वारा विचलित नहीं किया जाता, जो सुख दुख में, भय तथा चिंता में समभाव रहता है, वह मुझे अत्यंत प्रिय है।

श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, मेरा ऐसा भक्त जो सामान्य कार्यकलापों पर आश्रित नहीं है, जो शुद्ध है, दक्ष है, चिंतारहित है, समस्त कष्टों से रहित है और किसी फल के लिए प्रयत्नशील नहीं रहता, मुझे अतिशय प्रिय है।

श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, जो न कभी हर्षित होता है, न शोक करता है, जो न पछताता है,न इच्छा करता है, तथा जो शुभ तथा अशुभ दोनो प्रकार की वस्तुओं का परित्याग करता है ऐसा भक्त मुझे अत्यंत प्रिय है।

श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, जो इस भक्ति के अमर पथ का अनुसरण करते हैं, और जो मुझे ही अपना चरम लक्ष्य बना कर श्रद्धासहित पूर्णरूपेण संलग्न रहते हैं, वे भक्त मुझे अत्यधिक प्रिय हैं।

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