भगवत गीता कोट्स

भगवत गीता कोट्स (भगवद्ज्ञान)

Spread the love

1-श्रीभगवान ने कहा- हे पृथापुत्र ! अब सुनो कि तुम किस तरह मेरी भावना से पूर्ण होकर और मन को मुझमें आसक्त करके योगाभ्यास करते हुए मुझे पूर्णतया संशयरहित जान सकते हैं।

2-अब मैं तुमसे पूर्णरूप से व्यवहारिक तथा दिव्यज्ञान कहूंगा । इसे जान लेने पर तुम्हे जानने के लिए कुछ और शेष नहीं रहेगा।

3-कई हजार मनुष्यों में से कोई एक सिद्दि के लिए प्रय़त्नशील होता है और इस तरह सिद्धि प्राप्त करने वालों में से बिरला ही कोई एक मुझे वास्तव में जान पाता है।

4-पृथ्वी, जल, अग्नि , वायु, आकाश, मन, बुद्धि तथा अहंकार -ये आठ प्रकार से विभक्त मेरी भिन्ना (अपरा) प्रकृतियां हैं।

5-हे महाबाहु अर्जुन! इनके अतिरिक्त मेरी एक अन्य परा शक्ति है जो उन जीवों से युक्त, जो इस भोतिक अपरा प्रकृति के साधनो का विदोहन कर रहे हैं।

6-सारे प्राणियों का अद्गम इन दोनो शक्तियों में है। इस जगत् में जो कुछ भी भौतिक तथा आध्यात्मिक है, उसकी उत्पत्ति तथा प्रलय मुझे ही जानो।

7-हे धनन्जय! मुझसे श्रेष्ठ कोई सत्य नहीं है। जिस प्रकार मोती धागे में गुथे रहते हैं, उसी प्रकार सब कुछ मुझ पर ही आश्रित है।

8-हे कुंतीपुत्र! मैं जल का स्वाद हूं, सूर्य तथा चंद्रमा का प्रकाश हूं, वैदिक मंत्रों में ओंकार हूं, आकाश में ध्वनि हूं तथा मनुष्य में सामर्थ्य हूं।

9-मैं पृथ्वी की आद्य सुगंध और अग्नि की ऊष्मा हूं । मैं समस्त जीवों का जीवन तथा तपस्वियों का तप हूं।

10-हे पृथापुत्र! यह जान लो कि मैं ही समस्त जीवों का आदि बीज हूं, बुद्धिमानों की बुद्धि तथा समस्त तेजस्वी पुरुषों का तेज हूं।

11-मैं बलवानों का कामनाओं तथा इच्छा से रहित बल हूं। हे भरतश्रेष्ठ (अर्जुन) मैं वह काम हूं, जो धर्म के विरुद्ध नहीं है।

12-तुम जा लो कि मेरी शक्ति द्वारा सारे गुण प्रकट होते हैं, चाहे वो सतोगुण हो, रजोगुण हो या तमोगुण हो। एक प्रकार से मैं ही सब कुछ हूं, किंतु हूं स्वतंत्र , प्रकृति के गुणों के अधीन नहीं हूं, अपितु वो मेरे अधीन है।

13- तीन गुणों (सतो, रजो, तमो) के द्वार मोहग्रस्त यह सारा संसार मुझ गुणातीत तथा अविनाशी को नहीं जानता।

14-प्रकृति के तीन गुणों वाली इस मेरी दैवी शक्ति को पार कर पाना कठिन है। किंतु जो मेरे शरणागत हो जाते हैं, वे सरलता से इसे पार कर जाते हैं।

15- जो निपट मूर्ख हैं, जो मनुष्यों में अधम हैं, जिनका ज्ञान माया द्वारा हर लिया गया है तथा जो असुरों की नास्तिक प्रकृति को धारण करने वाले हैं, ऐसे दुष्ट मेरी शरण ग्रहण नहीं करते ।

16-हे भरतश्रेष्ठ! चार प्रकार के पुण्यात्मा मेरी सेवा करते हैं- आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी तथा ज्ञानी।

17-इनमें से जो परमज्ञानी है और शुद्धभक्ति में लगा रहता है वह सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि मैं उसे अत्यंत प्रिय हू और वह मुझे प्रिय है।

18-निसंदेह ये सब उदारचेता व्यक्ति हैं, किंतु जो मेरे ज्ञान को प्राप्त है, उसे मैं अपने ही समान मानता हूं। वह मेरी दिव्यसेवा में तत्पर रहकर मुझ सर्वोच्च उद्देश्य को निश्चित रूप से प्राप्त करता है।

19- अनके जन्म-जन्मांतर के बाद जिसे सचमुच ज्ञान होता है, वह मुझको समस्त कारणों का कारण जानकर मेरी शरण में आता है। ऐसा महात्मा अत्यंत दुर्लभ होता है।

20- जिनकी बुद्धि भौतिक इच्छाओं द्वारा मारी गई है, वे देवताओं की शरण में जाते हैं और वे अपने-अपने स्वभाव के अनुसार पूजा के विशेष विधि-विधानो का पालन करते हैं।

21-मैं प्रत्येक जीव के हृदय में परमात्मा स्वरूप में स्थित हूं, जैसे ही कोई किसी देवता की पूजा करने की इच्छा करता है, मैं उसकी श्रद्धा को स्थिर करता हूं, जिससे वह उसी विशेष देवता की भक्ति कर सके।

22-ऐसी श्रद्धा से समन्वित वह देवता विशेष की पूजा करने का यत्न करता है और अपनी इच्छा की पूर्ति करता है। किंतु वास्तविकता तो यह है कि ये सारे लाभ केवल मेरे द्वारा प्रदत्त हैं।

23-अल्पबुद्धि वाले व्यक्ति देवताओं की पूजा करते हैं और उन्हे प्राप्त होने वाले फल सीमित तथा क्षणिक होते हैं। देवताओं की पूजा करने वाले देवलोक को जाते हैं, कितु मेरे भक्त अन्तत: मेरे परमधाम को जाते हैं।

24-बुद्धिहीन मनुष्य मुझको ठीक से न जानने के कारण सोचते हैं,कि मैं (भगवान कृष्ण) पहले निराकार था और अब मैने इस स्वरूप को धारण किया है। वे अपने अल्पतज्ञान के कारण मेरी अविनाशी तथा सर्वोच्च प्रकृति को नहीं जान पाते।

25-मैं मूर्खो तथा अल्पज्ञों के लिए कभी भी प्रकट नहीं हूं। उनके लिए तो मैं अपनी अन्तरंगा शक्ति द्वारा आच्छादित रहता हूं, अत: वे यह नहीं जान पाते कि मैं अजन्मा तथा अविनाशी हूं।

26- हे अर्जुन ! श्रीभगवान होने के नाते मैं जो भूतकाल में घटित हो चुका है, जो वर्तमान में घटित हो रहा है और जो आगे होने वाला है, वह सबकुछ जानता हूं। मैं समस्त जीवों को भी जानता हूं, किंतु मुझे कोई नहीं जानता।

27-हे भरतवंशी ! हे शत्रुविजेता ! समस्त जीव जन्म लेकर इच्छा तथा घृणा से उत्पन्न द्वंदों से मोहग्रस्त होकर मोह को प्राप्त होते हैं।

28- जिन मनुष्यो ने पूर्वजन्मों में तथा इस जन्म में पुण्यकर्म किये हैं, और जिनके पापकर्मों का पूर्णतया उच्छेदन हो चुका होता है, वे मोह के द्वंदो से मुक्त हो जाते हैं, और वे संकल्पपूर्वक मेरी सेवा करते हैं।

29-जो जरा तथा मृत्यु से मुक्ति पाने के लिए यत्नशील रहते हैं, वो बुद्धिमान व्यक्ति मेरी भक्ति की शरण में ग्रहण करते हैं। वे वास्तव में दिव्य कर्मों के विषय में पूरी तरह से जानते हैं।

30-जो मुझ परमेश्वर को मेरी पूर्ण चेतना में रहकर मुझे जगत का, देवताओं का तथा समस्त यज्ञविधियों का नियामक जानते हैं, वे अपनी मृत्यु के समय भी मुझ भगवान को जान और समझ सकते हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *