ईर्ष्या का जन्म कहां से होता ? ईर्ष्या का जो मूल है, वो हमारा मन है, क्योंकि आपके मन की धारणाएं ही ईर्ष्या को जन्म देती है, और माध्यम दूसरा बनता है।
ईर्ष्या में सबसे पहले आपके मन में इच्छाएं जागृत होती हैं, वो इच्छा होती है, दूसरों से आगे जाने की, या फिर दूसरों को नीचा दिखाने की, या केवल खुद को श्रेष्ठ साबित करने की।
ईर्ष्या की भावना लेकिन एक दिन में नहीं बनती, क्योंकि किसी भी विचार को प्रभावी होने में समय लगता है, तभी वो आपके मन में जगह बना पाएगा, और कभी कभी आपके मन में ईर्ष्या जगह बना ही नहीं पाती, लेकिन वो होता तभी है, जब आपकी इच्छाएं ही पूरी हो जाएं, उदाहरण के तौर पर अगर आपने अपने पड़ोसी से आगे जाने की इच्छा कि आपको लगा कि आपके पड़ोसी के पास कार है जिसकी कीमत 8 लाख रुपये है, और आप चाहते हैं, कि आपके पास उससे महगी कार आ जाए, और आपके पास उससे महगी कार आ भी जाती है, तो आपके मन से वो ईर्ष्या खत्म भी हो सकती है। लेकिन अगर आप ऐसा करने में असमर्थ हो जाते हैं, और बार बार उसी कार का चिंतन करते हैं, और खुद को अयोग्य साबित करते हैं, आपको लगता है, कि आप महगी कार नहीं ले पाए, तो वो ईर्ष्या बढ़ती जाएगी, और वो क्रोध का रूप ले लेगी , आप चिढ़चिढ़े हो जाएंगे और आपको बार बार छोटी छोटी बातों में गुस्सा आएगा, और आपके जीवन से खुशिय़ा खत्म हो जाएंगी, और आपके रिश्ते भी खराब हो जाएंगे।
ईर्ष्या से कैसे बचें ?
- भगवान के नाम का जप करें, इससे भावनाएं अच्छी रहेंगीं।
- परोपकार करें, इससे भी भावनाएं अच्छी रहेंगी।
- जिससे ईर्ष्या की संभावना हो उससे मन ही मन प्रणाम करिए, जय श्री कृष्ण कहिए, इससे आपकी गलत भावना खत्म हो जाएगी।
- खुद को ये समझा लीजिए कि इस दुनिया में सबका कर्म और किस्मत अलग अलग है, आपके पास कुछ ऐसा है जो दूसरों के पास नहीं है।
- थोड़ा प्राणायाम करिए।
- जिससे ईर्ष्या हो उससे मेलजोल रखिए, ताकि ईर्ष्या की भावना खत्म हो जाए।
- आध्यात्मिक ग्रंथ जैसे भगवद गीता, रामायण, उपनिषदों को पढ़िए, इससे जीवन की समझ बढ़ेगी।
- दूसरों से उस व्यक्ति के बारे में बात न करें, जिससे ईर्ष्या हो।