हनुमान जी जब सीता जी का पता ढूढ़कर आए,तो रामजी कहते हैं, हे हनुमान, तुम जैसा उपकारी देवता , मनुष्य कोई भी नहीं है, मैने तुम्हारे बारे में बहुत विचार किया लेकिन मैं किसी भी तरह तुम्हारे ऋण से मुक्त नहीं हो सकता , श्रीराम की ऐसी बातों को सुनकर हनुमान जी अत्यंत प्रसन्न हुए,और श्रीराम जी के चरणो में गिर पड़े, श्रीराम ने उनको चरणों से उठाकर हृदय से लगाया और हांथ पकड़कर अपने पास बैठा लिया और पूंछने लगे.कि रावन की इतनी सुरक्षित सोने को लंका जहां पर राछसों का पहरा था, तुमने कैसे जलाया, ये सुनकर हमुमान जी अत्यंत प्रसन्न हुए, और अभिमान रहित होकर बोले, कि बंदर केवल पुरूषार्थ इतना कर सकता है, कि वो केवल एक डाल से दूसरी डाल पर जा सकता है,इसके अलावा कुछ नहीं कर सकता, मैने जो समुद्र पार किया, राक्षसों को मार,अशोक वाटिका उजाड़ी, ये काम मेरे लिए असंभव था, और कहते हैं, सो सब तब प्रताप रघुराई , नाथ न कछु मोरि प्रभुताई, ये सब तो आप ही का प्रताप है, मेरी इसमे कोई बड़ाई नहीं है, लेकिन जिस पर आप प्रसन्न हो जाएं, उसके लिए असंभव भी संभव हो जाता है।
दोस्तों इस कहानी का मैसेज इतना है, कि अगर आपको भी हनुमान जी जैसी सफलता प्राप्त करनी है, तो आप भी हनुमान जी जैसे अभिमान रहित हो जाइए, ये कहना छोड़ दीजिए कि आपने क्या किया है, और सारी सफलताओं को भगवान की कृपा समझिए, जिससे आपको कर्मों की थकावट नहीं लगेगी, और साथ ही साथ आपको जब आपको ये लगेगा कि आपने कुछ किया तो आप निरंतर कार्य में लगे रहेंगे, और सफल होते रहेंगे, बहुत सारे लोग केवल छोटी सी सफलता प्राप्त करके अभिमानी हो जाते हैं, जिससे उनकी आगे बढ़ने की संभावना खत्म हो जाती है।
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