भक्तियोग – भगवान श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दिया गया भक्ति का सिद्धांत!
एवं सततयुक्ता ये भक्त्यास्त्वां पर्यपास्ते। ये चाप्यरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमा।
भावार्थ – अर्जुन ने श्री कृष्ण से पूंछा – जो आपकी सेवा में सदैव तत्पर रहते हैं, या जो अव्यक्त निर्विशेष ब्रह्म की पूजा करते हैं, इन दोनो में से अधिक पूर्ण सिद्ध किसे माना जाय़?
मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते । श्रद्धया परयोयेपास्ते में युक्ततमा मता:।।
भावार्थ- श्रीभगवान ने कहा – जो लोग अपने मन को मेरे साकार रूप में एकाग्र करते हैं, और अत्यंत श्रद्धापूर्वक मेरी पूजा करने में सदैव लगे रहते हैं, वे मेरे द्वारा परम सिद्ध माने जाते हैं।
ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपास्ते । सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्।। सन्नियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धय:। ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रता:।।
भावार्थ- लेकिन जो लोग अपनी इन्द्रियों को वश में करके तथा सबों के प्रति समभाव रखकर परम सत्य की निराकार कल्पना के अन्तर्गत उस अव्यक्त की पूरी तरह से पूजा करते हैं, जो इन्द्रियों की अनुभूति के परे है, सर्वव्यापी है, अकल्पनीय है, अपरिपर्तनीय है, अचल तथा ध्रुव है, वे समस्य लोगों के कल्याण में संलग्न रहकर अन्तत: मुझे प्राप्त करते हैं।
क्लेशोअधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम। अव्यक्ता हि गतिर्दु:खं देहवद्धिरवाप्यते।।
भावार्थ- जिन लोगों के मन परमेश्वर के अव्यक्त, निराकार स्वरूप के प्रति आसक्त है, उनके लिए प्रगति कर पाना अत्यंत कष्टप्रंद है। देहधारियों के लिए उस क्षेत्र में प्रगति कर पाना सदैव दुष्कर होता है।
ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्परा:। अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते ।। तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्। भवामि न चिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्।।
भावार्थ- जो अपने सारे कार्यों को मुझमें अर्पित करके तथा अविचलित भाव से मेरी भक्ति करते हुए मेरी पूजा करते हैं, और अपने चित्त के मुझमे स्थिर करके निरंतर मेरा ध्यान करते हैं, उनके लिए हे पार्थ! मैं जन्म मृत्यु के सागर से शीध्र उद्धार करने वाला हूं।
मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय:। निवासिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशय:।।
भावार्थ- मुझ भगवान में अपने चित्त को स्थिर करो और अपनी सारी बुद्धि मुझमें लगाओ। इस प्रकार तुम निसंदेह मुझमें सदैव वास करोगे।
अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम्। अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनन्जय।।
भावार्थ- हे अर्जन , हे धनन्जय ! यदि तुम अपने चित्त को अविचल भाव से मुझ पर स्थिर नहीं कर सकते, तो तुम भक्तियोग के विधि विधानो का पालन करो। इस प्रकार तुम मुझे प्राप्त करने की चाह उत्पन्न करो।
अभ्यासेअप्यसमर्थोअसि मत्कर्मपरमो भव। मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि।।
भावार्थ- यदि तुम भक्तियोग के विधि विधानो का भी अभ्यास नहीं कर सकते, तो मेरे लिए कर्म करने का प्रयत्न करो, क्योंकि मेरे लिए कर्म करने से तुम पूर्ण अवस्था (सिद्धि) को प्राप्त होगे।
अथैतदप्यशक्तोअसि कर्तुं मद्योगमाश्रित:। सर्वकर्मफलत्यागं तत: कुरु ययात्मवान।।
भावार्थ- किन्तु यदि तुम मेरे इस भावनामृत में कर्म करने में असमर्थ हो तो तुम अपने कर्म के समस्त फलों को त्याग कर कर्म करने का तथा आत्म-स्थित होने का प्रयत्न करो।
श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्यनं विशिष्यते। ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरन्नतरम।।
भावार्थ- यदि तुम यह अभ्यास नहीं कर सकते तो ज्ञान के अनुशीलन में लग जाओ। लेकिन ज्ञान से श्रेष्ठ है ध्यान और ध्यान से भी श्रेष्ठ है कर्म फलों का त्याग क्योंकि ऐसे त्याग से मनुष्य को मन: शांति प्राप्त हो सकती है।
अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्र: करुण एव च। निर्ममो निरहंकार: समदु:खसुख: क्षमी।। संतुष्ट: सततं योगी यतात्मा दृढ़निश्चय:। मय्यर्पितमनोबुद्दिर्यों मद्भक्त: स में प्रिय:।।
भावार्थ- जो किसी से द्वेष नहीं करता, लेकिन सभी जीवों का दयालु मित्र है, जो अपने को स्वामी नहीं मानता और मिथ्या अहंकार से मुक्त है, जो सुख-दुख में समभाव रहता है, सहिष्णु है, सदैव आत्मसंतुष्ट रहता है, आत्मसंयमी है, तथा निश्चय के साथ मुझमे मन तथा बुद्धि को स्थिर करके भक्ति में लगा रहता है, ऐसा भक्त मुझे अत्यंत प्रिय है।
यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च य:। हर्षामर्षभयोद्वेगैमुर्क्तो य: स च में प्रिय:।।
भावार्थ-जिससे किसी को कष्ट नहीं पहुंचता तथा जो अन्य किसी के द्वारा विचलित नहीं होता किया जाता , जो सुख-दुख में , भय तथा चिंता में समभाव रहता है, वह मुझे अत्यंत प्रिय है।
अनपेक्ष: शुचिर्दक्ष उदासानो गतव्यथ:। सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्त: स मे प्रिय:
भावार्थ- मेरा ऐसा भक्त जो सामान्य कार्यकलापों पर आश्रित नहीं है, जो शुद्ध है, दक्ष है, चिंतारहित है, समस्त कष्टों से रहित है और किसी भी फल के लिए प्रयत्नशील नहीं रहता , मुझे अतिशय प्रिय है।
यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काड्.क्षति। शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्य: स में प्रिय:।।
भावार्थ-जो न कभी हर्षित होता है, न शोक करता है, जो न तो पछताता है, न इच्छा करता है, तथा जो शुभ तथा अशुभ दोनो प्रकार की वस्तुओं का परित्याग कर देता है, ऐसा भक्त मुझे अत्यंत प्रिय है।
सम: शत्रो च मित्रे च तथा मानापमानयो:। शीतोष्णसुखदु:खेषु सम: सग्ड.विवर्जित:।। तुल्यनिंदास्तुतिर्मौनी संतुष्टो येन केनचित। अनिकेत: स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नर:।।
भावार्थ- जो मित्रो तथा शत्रुओं के लिए समान है, जो मान तथा अपमान, शीत तथा गर्मी सुख तथा दुख यश तथा अपयश में समभाव रखता है, जो दूषित संगति से सदैव मुक्त रहता है, जो सदैव मौन और किसी भी वस्तु से संतुष्ट रहता है,जो किसी प्रकार के घर वार की परवाह नहीं करता, जो ज्ञान में दृढ़ है और जो भक्ति में संलग्न है- ऐसा पुरुष मुझे अत्यंत प्रिय है।
ये तु धर्मामृतमिदं यथोक्तं पर्युपास्ते। श्रद्धाना मत्परमा भक्तोस्तेअतीव में प्रिया:।।
भावार्थ- इस भक्ति के अमर पथ का अनुसरण करते हैं, और जो मुझे ही अपना चरम लक्ष्य बनाकर श्रद्धासहित पूर्णरूपेण संलग्न रहते हैं, वे भक्त मुझे अत्यधिक प्रिय है।