1- श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, अविनाशी और दिव्य जीव ब्रह्म कहलाता है और उसका नित्य स्वभावा अध्यात्म या आत्म कहलाता है। जीवों के भौतिक शरीर से सम्बंधित गतिविधि कर्म या सकाम कर्म कहलाती है।
2- श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, निरंतर परिवर्नशील यह भौतिक प्रकृति अधिभूत (भौतिक अभिव्यक्ति कहलाती है। भगवान का विराट रूप, जिसमें सूर्य तथा चंद्र जैसे समस्त देवता हैं, अधिदैव कहलाता है। तथा प्रत्येक देहधारी के हृदय में परमात्मा स्वरूप स्थित मैं परमेश्वर अधियज्ञ (यज्ञ का स्वामी ) कहलाता हूं।
3-हे कुंतीपुत्र! शरीर त्यागते समय मनुष्य जिस-जिस भाव का स्मरण करता है, वह उस उस भाव को निश्चित रूप से प्राप्त होता है।
4-श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, हे अर्जुन! तुम्हे सदैव कृष्ण रूप में मेरा चिन्तन करना चाहिए और साथ ही युद्ध करने के कर्तव्य को भी पूरा पूरा करना चाहिए। अपने कर्मों को मुझे समर्पित करके तथा अपने मन एवं बुद्धि को मुझमें स्थिर करके तुम निश्चित रूप से मुझे प्राप्त कर सकोगे
5- जो व्यक्ति मेरा स्मरण करने में अपना मन निरंतर लगाये रखकर अविचलित भाव से भगवान के रूप में मेरा ध्यान करता है, वह मुझको अवश्य प्राप्त होता है।
6-मनुष्य को चाहिए कि परमपुरुष का ध्यान सर्वज्ञ, पुरातन, नियंता, लघुतम से भी लघुतर, प्रत्येक का पालनकर्ता, समस्त भौतिकबुद्धि से परे, अचिन्त्य तथा नित्य पुरुष के रूप में करे। वे सूर्य की भांति जेतवान हैं, और इस भौतिक प्रकृति से परे दिव्य रूप हैं।
7-समस्त ऐन्द्रिय क्रियाओं से विरक्ति को योग की स्थिति( योगधारणा) कहा जाता है। इन्द्रियों के समस्त द्वारों को बन्द करके तथा मन को हृदय में और प्राणवायु को सिर पर केन्द्रित करके मनुष्य अपने को योग में स्थापित करता है।
8- हे अर्जुन जो अनन्य भाव से निरंतर मेरा स्मरण करता है उसके लिए मैं सुलभ हूं, क्योंकि वह मेरी भक्ति में प्रवृत्त रहता है।
9-मुझे (कृष्ण ) को प्राप्त करके महापुरुष, जो भक्तियोगी हैं, कभी भी दुखों से पूर्ण इस अनित्य जगत में नहीं लौटते, क्योंकि उन्हें परम सिद्धि प्राप्त हो चुकी होती है।
10-इस जगत में सर्वोच्च लोक से लेकर निम्नतर सारे लोक दुखों के घर हैं, जहां जन्म तथा मरण का चक्कर लगा रहता है। किंतु हे कुंतीपुत्र! जो मेरे धाम को प्राप्त कर लेता है, वह फिर कभी जन्म नहीं लेता।
11-ंमानवीय गणना के अनुसार एक हजार युग मिलकर ब्रह्मा का एक दिन बनता है और इतनी ही बड़ी ब्रह्मा की रात्रि होती है।
12-ब्रह्मा के दिन के शुभारम्भ में सारे जीव अव्यक्त अवस्था से व्यक्त होते हैंं फिर जब रात्रि आती है तो वे पुन: अव्यक्त में विलीन हो जाते हैं।
13-जब-जब ब्रह्मा का एक दिन आता है तो सारे जीव प्रकट होते हैं और ब्रह्मा की रात्रि होते ही वे असहायवत विलीन हो जाते हैं।
14-इसके अतिरिक्त एक अन्य अव्यक्त प्रकृति है, जो शाश्वत है और इस व्यक्त तथा अव्यक्त पदार्थ से परे हैं। यह परा (श्रेष्ठ) और कभी नाश न होने वाली है। जब इस संसार का सब कुछ लय हो जाता है, तब भी उसका नाश नहीं होता है।
15-जिसे वेदांती अप्रकट तथा अविनाशी बताते हैं, जो परम गन्तव्य है, जिसे प्राप्त कर लेने पर कोई वापस नहीं आता, वही मेरा परम धाम है।
16-भगवान जो सबसे महान हैं, अनन्य भक्ति द्वारा ही प्राप्त किये जा सकते हैं। यद्यपि वे अपने धाम में विराजमान रहते हैं, तो भी वे सर्वव्यापी हैं और उनमे सब कुछ स्थित है।
17-जो परब्रह्म के ज्ञाता हैं, वे अग्निदेव के प्रभाव में, प्रकाश में, दिन के शुभक्षण में, शुक्लपक्ष में या जब सूर्य उत्तरायण में रहता है, उन छह मासो में इस संसार से शरीर त्याग करने पर उस परब्रह्म को प्राप्त करते हैं।
18-जो योगी धुएं, रात्रि, कृष्णपक्ष में या सूर्य के दक्षिणायन रहने के छह महीनों में दिवंगत होता है, वह चन्द्रलोक को जाता है, किंतु वहां से पुन: (पृथ्वी पर) चला आता है।
19-वैदिक मतानुसार इस संसार से प्रयाण करने के दो मार्ग हैं-एक प्रकाश का तथा दूसरा अंधकार का। जब मनुष्य प्रकाश के मार्ग से जाता है तो वह वापस नहीं आता, किंति अंधकार के मार्ग से जाने वाला पुन: लौटकर आता है।
20-हे अर्जुन! यद्यपि भक्तगण इन दोनों मार्गो को जानते हैं, किंतु वे मोहग्रस्त नहीं होते। अत: तुम भक्ति में सदैव स्थिर रहो।
21-जो व्यक्ति भक्तिमार्ग स्वीकार करता है, वह वेदाध्ययन, तपस्या, दान, दार्शिनक तथा सकाम कर्म करने से प्राप्त होने वाले फलों से वंचित नहीं होता। वह मात्र भक्ति सम्पन्न करके इन समस्त फलों की प्राप्ति करता है और अन्त में नित्यधाम को प्राप्त होता है।
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