श्रीकृष्ण भगवान गीता में कहते हैं, चतुर्विधा भजन्ते मां जना: सुकृतिनोअर्जुन। आर्तो जिज्ञासुरथार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ।।
हे भरतश्रेष्ठ चार प्रकार के पुन्यात्मा मेरी सेवा करते हैं- आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी तथा ज्ञानी । इसका मतलब है कि चार प्रकार के लोग भगवान की शरण में आते हैं, पहला जो पीड़ित है, दूसरा जो जिज्ञासु हैं, तीसरा जो अर्थ चाहता है, औऱ चौथा है ज्ञानी।
तेषां ज्ञानी नित्युक्त एकभक्तिर्विशिष्यते।
तिप्रो हि ज्ञानिनअत्यर्थमहं स च मम प्रिय:।।
इनमें से जो परमज्ञानी है और शुद्धभक्ति में लगा रहता है, वह सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि मैं उसे अत्यंत प्रिय हूं और वो मुझे अत्यंत प्रिय हैं।
उदारा सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्। आस्थित: स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम्।
निस्संदेह ये सब उदारचेता व्यक्ति हैं, किंतु जो मेरे ज्ञान को प्राप्त है, उसे मैं अपने ही समान मानता हूं। यह मेरी दिव्यसेवा में तत्पर रहकर मुझ सर्वोच्च उद्देश्य को निश्चित रूप से प्राप्त करता है।
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ:।।
अनेक जन्म-जन्मांतर के बाद जिसे सचमुच ज्ञान होता है, वह मुझको समस्त कारणों का कारण जानकर मेरी शरण में आता है। ऐसा महात्मा अत्यंत दुर्लभ होता है।
कामैस्तैस्तैर्तर्हृतज्ञानां प्रपद्यंतेअन्यदेवता:।
तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियंत: स्वया।।
जिनकी बुद्धि भौतिक इच्छाओं द्वारा मारी गई है, वे देवताओं की शरण में जाते हैं, और वे अपने अपने स्वभाव के काऱण पूजा के विशेष विधिविधानो का पालन करते हैं।
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