भगवत गीता कोटस् कर्मयोग

न तो कर्म से विमुख होकर कोई कर्मफल से छुटकारा पा सकता है, और न केवल सन्यास से सिद्धि प्राप्त की  जा सकती है।

जो कर्मन्द्रियों को तो वश में करता है, किंतु जिसका मन इन्द्रिविषयों का चिंतन करता रहता है,वह निश्चित रूप से स्वयं को धोखा देता है,और वह मिथ्याचारी कहलाता है।

यदि कोई निष्ठावान व्यक्ति अपने मन के द्वारा कर्मेंद्रियों को वश में करने का प्रयत्न करता है,और बिना किसा आसक्ति के कर्मयोग (कृष्णभावनामृत में) प्रारम्भ करता है, तो वह अति उत्कृष्ट है।

यदि कोई निष्ठावान व्यक्ति अपने मन के द्वारा कर्मेंद्रियों को वश में करने का प्रयत्न करता है,और बिना किसा आसक्ति के कर्मयोग (कृष्णभावनामृत में) प्रारम्भ करता है, तो वह अति उत्कृष्ट है।

श्रीविष्णु के लिए यज्ञ रूप में कर्म करना चाहिए,अन्यथा कर्म के द्वारा इस भौतिक जगत में बन्धन उत्पन्न होता है। अत׃ हे कुंतीपुत्र उनकी प्रसन्नता के लिए अपने नियत कर्म करो। इस तरह तुम बन्धन से सदा मुक्त रहोगे।

सृष्टि के प्रारम्भ में समस्त प्राणियों के स्वामी ने विष्णु के लिए यज्ञ सहति मनुष्यों तथा देवताओं की सन्ततियों को रचा और उनसे कहा ,तुम इस यज्ञ से सुखी रहो क्योंकि इसके करने से तुम्हे सुखपूर्वक रहने तथा मुक्ति प्राप्त करने के लिए समस्त वांछित वस्तुएं प्राप्त हो सकेंगी।

जीवन की विभिन्न आवश्यकताओं  की पूर्ति करने वाले विभिन्न देवता यज्ञ सम्पन्न होने पर प्रसन्न होकर आवश्यकताओं की पूर्ति करेंगे, किंतु जो इन उपहारों को देवताओं को अर्पित किये बिना भोगता है,वह निश्चित रूप से चोर है।

भगवान के भक्त सभी प्रकार के पापों से मुक्त हो जाते हैं।क्योंकि वे यज्ञ में अर्पित किये भोजन (प्रसाद) को ही खाते हैं। अन्य लोग ,जो अपने इन्द्रियसुख  के लिए भोजन बनाते हैं,वो निश्चित रूप से पाप खाते हैं।

भगवान के भक्त सभी प्रकार के पापों से मुक्त हो जाते हैं। क्योंकि वे यज्ञ में अर्पित किये भोजन (प्रसाद) को ही खाते हैं। अन्य लोग ,जो अपने इन्द्रियसुख  के लिए भोजन बनाते हैं, वो निश्चित रूप से पाप खाते हैं।

वेदों में नियमित कर्मों को विधान है और ये वेद साक्षात श्रीभगवान (परब्रह्म ) से प्रकट हुए हैं। फलत:सर्वव्यापी ब्रह्म यज्ञकर्मों में सदा स्थित रहता है।

वेदों में नियमित कर्मों को विधान है और ये वेद साक्षात श्रीभगवान (परब्रह्म ) से प्रकट हुए हैं। फलत:सर्वव्यापी ब्रह्म यज्ञकर्मों में सदा स्थित रहता है।

जो व्यक्ति आत्मा में ही आनंद लेता है,तथा जीवन आत्म-साक्षात्कार युक्त है, और जो अपने में ही पूर्णतया सन्तुष्ट रहता है उसके लिए कुछ करणीय (कर्तव्य ) नहीं होता।जो व्यक्ति आत्मा में ही आनंद लेता है,तथा जीवन आत्म-साक्षात्कार युक्त है,और जो अपने में ही पूर्णतया सन्तुष्ट रहता है उसके लिए कुछ करणीय (कर्तव्य ) नहीं होता।जो व्यक्ति आत्मा में ही आनंद लेता है,तथा जीवन आत्म-साक्षात्कार युक्त है, और जो अपने में ही पूर्णतया सन्तुष्ट रहता है उसके लिए कुछ करणीय (कर्तव्य ) नहीं होता।

स्वरूपसिद्ध व्यक्ति के लिए न तो अपने नियत कर्मों को करने की आवश्यकता रह जाती है, न ऐसा कर्म न करने का कोई कारण ही रहता है। उसे किसी अन्य जीवन पर निर्भर रहने की आवश्यकता भी नहीं रह जाती ।

कर्मफल में आसक्त हुए बिना मनुष्य को अपना कर्तव्य समझ कर निरंतर कर्म करते रहना चाहिए, क्योंकि अनासक्त होकर कर्म करने से उसे परब्रह्म की प्राप्ति होती है।

जनक जैसे राजाओं ने केवल नियत कर्मो को करने से ही सिद्धि प्राप्त की। अत׃सामान्य जनो को शिक्षित करने की दृष्टि से कर्म करना चाहिए।

महापुरुष जो आचरण करता है, सामान्य व्यक्ति उसी का अनुसरण करते हैं, वह अपने अनुसरणीय कार्यों से जो आदर्श प्रस्तुत करता है,सम्पूर्ण विश्व उसका अनुसरण करता है।

जिस प्रकार अज्ञानी व्यक्ति फल की आसक्ति से कार्य करते हैं, उसी तरह विद्वान जनो को चाहिए कि वे लोगों को उचित पथ पर ले जाने के लिए अनासक्त होकर कार्य करें।

विद्वान व्यक्ति को चाहिए कि वह सकाम कर्मों में आसक्त अज्ञानी पुरुष को कर्म करने से रोके नहीं ताकि उनके मन में विचलित न हों, अपितु भक्तिभाव से कर्म करते हुए उन्हे सभी प्रकार के कार्यों में लगाये (जिससे कृष्णभावनामृत का क्रमिक विकास हो।

जीवात्मा अहंकार के प्रभाव से मोहग्रस्त होकर अपने आपको समस्त कर्मों का कर्ता मान बैठता है,जब कि वास्तव में वे प्रकृति के तीनों गुणों द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं।

भक्तिभावमय कर्म तथा सकाम कर्म के भेद को भलीभांति जानते हुए जो परम सत्य को जानने वाला है,वह कभी भी अपने आपको इन्द्रियों में तथा इन्द्रियतृप्ति में नहीं लगाता ।

प्रत्येक इन्द्रिय तथा उसके विषय से संबंधित राग द्वेष को व्यवस्थित करने के नियम होते हैं,मनुष्य़ को ऐसे राग तथा द्वेष के वशीभूत नहीं होना चाहिए, क्योंकि आत्मसाक्षात्कार के मार्ग में अवरोधक है।

अपने नियतकर्मों को दोषपूर्ण ढंग से सम्पन्न करना भी अन्य के कर्मों को भलीभांति करने से श्रेयस्कर है। स्वीय कर्मों को करते हुए मरना पराये कर्मों में प्रवृत्त होने की अपेक्षा श्रेष्ठतर है, क्योंकि अन्य किसी मार्ग का अनुसरण भयावह होता है।

जिस प्रकार अग्नि धुएं से, दर्पण धूल से, भ्रूण गर्भाशय से आवृत्त रहता है, उसी प्रकार जीवात्मा इस काम की विभिन्न मात्राओं से आवृत्त रहता है।

इन्द्रियां, मन तथा बुद्धि इस काम के निवासस्थान है। इनके द्वारा यह काम जीवात्मा के वास्तविक ज्ञान को ढक कर उसे मोहित कर लेता है।

FOLLOW US:

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *